मैं एक आत्मा हूँ।
मैं आत्मा प्रेमस्वरूप हूँ।
मेरा वास्तविक स्वरूप प्रेम है — निस्वार्थ प्रेम, वह प्रेम जो हर सीमा से ऊपर है, हर बंधन से मुक्त है। उस प्रेम में सम्पन्नता है, बेहद सुख है। प्रेम की उन्मुक्त धारा मुझ आत्मा में निरंतर बह रही है। सर्वप्रथम, मैं आत्मा स्वयं के प्रति प्रेम का अनुभव कर रही हूँ — मैं जो हूँ, जैसी हूँ, स्वयं को स्वीकार कर संतुष्ट हूँ। मैं आत्मा महान हूँ। अपने गुणों को सामने रखकर, उन्हें देने वाले शिवबाबा के प्रति आज मेरा हृदय कृतज्ञता से भर उठा है। मेरे मन में बाबा के प्रति स्नेह का सागर उमड़ रहा है। प्रेम के सागर शिवबाबा की संतान हूँ।
मैं आत्मा प्रेमस्वरूप हूँ, और मेरे पिता शिवबाबा — कितने महान हैं, प्रेम के असीम सागर हैं। सत्यम, शिवम्, सुंदरम्।
शिवबाबा के प्रेम में मैं आत्मा भावविभोर हो रही हूँ। निश्चल, सरल, अगाध प्रेम के उस दिव्य स्रोत के संपर्क में आकर, मैं प्रेमानंद का अनुभव कर रही हूँ। अब मैंने पहचान लिया है कि प्रेम की शक्ति कितनी महान है। यह शक्ति इतनी गहरी और प्रभावशाली है कि पत्थर को भी पानी कर सकती है। प्रेम की शक्ति हद की दीवारों को तोड़कर सारी आत्माओं को एक सूत्र में बाँध सकती है।
अब मैं प्रेम के प्रकंपनों को विश्व की आत्माओं तक पहुँचा रही हूँ। यह निर्मल प्रेमधारा जन्मों की प्यास बुझा रही है। वसुधैव कुटुम्बकम् का स्वप्न इस प्रेम की शक्ति के द्वारा साकार हो रहा है। जितना मैं इस प्रेम के प्रकाश को फैला रही हूँ, उतना ही मैं स्वयं भी भरपूर होती जा रही हूँ। परमात्म प्रेम की शीतल फुहार से मुझ आत्मा की जन्म-जन्म की प्यास बुझती जा रही है — अब मैं आत्मा तृप्त हूँ। मैं स्वयं को अपनी वास्तविकता के और भी करीब अनुभव कर रही हूँ।
मैं शिवबाबा के अत्यंत समीप हूँ।
प्रेम के सागर के साथ यह संगम, यह अनुभव, मुझे धन्य-धन्य कर रहा है। अब मेरी भावना है कि यह अनुभव मैं अन्य आत्माओं को भी कराऊँ — ताकि सबका मिलन शिवबाबा से हो सके। और वह स्नेहमयी दुनिया, जिसकी हम सबको प्रतीक्षा है, इस धरती पर पुनः प्रकट हो सके।
ॐ शांति।











