ओम शांति, जैसे-जैसे मैं स्वयं को योग के शक्तिशाली अनुभव के लिए प्रस्तुत करती हूं, उसके प्रथम चरण में मैं अपने शरीर और अपने मन को आराम और शांति प्रदान करती हूँ । जहां भी बैठे हैं,अपने शरीर को ढीला छोडदे । अपने मन के विचारों को धीरे-धीरे शांत होता महसूस करें और अपने मन को ले चले एक विशाल सागर के किनारे ,जहां चारों ओर मधुर शांति बिखरी हुई है। मेरे सर के ऊपर खुला नीला आसमान और मेरे आगे आसमान से क्षितिज पर मिलता हुआ विशाल समुद्र, यह समुद्र और आकाश का मिलन आकाश में पंछियों का दृश्य मेरे नेत्रों को आराम दे रहा है। यह आती हुई लहरों की ध्वनि कानों में गूंज रही हवा की आवाज मेरे कानों को आराम दे रही है। बहती हुई हवा अपने स्पर्श से मेरे पूरे शरीर को आराम दे रही है। समुद्र का पानी जैसे-जैसे मेरे पांव को छू के लौट रहा है। मेरा पूरा शरीर और मन प्रकृति की गोद में आराम प्राप्त कर रहा है।
प्रकृति की इस गोद में आराम प्राप्त करते हुए अब अपना ध्यान इस बाह्य वातावरण से धीरे-धीरे समेट कर स्वयं पर केंद्रित करें। स्वयं को समुद्र के किनारे खड़ा हुआ देखें। ध्यान से देखें हम कैसे खड़े हैं? कैसे वस्त्र धारण किए हैं? चेहरे के भाव आदि कैसे हैं? अब अपना ध्यान धीरे-धीरे अंदर की ओर मोड़ ले। क्या जैसे हम बाहर से दिखते हैं,अंदर से भी वैसे ही है। अंदर से इस शरीर को ध्यान से देखें। हड्डी मांस का बना हुआ यह शरीर इस शरीर में नेत्र,नाक,मुख,कान,मस्तिष्क,हृदय,अन्य सभी हिस्सों को मांसपेशियों को,रक्त की नलियों को देखें। स्वयं पर अपना ध्यान टिका दे। अन्य सभी बातों से मुक्त हो जाए। अपने विचारों को मैं कैसा महसूस कर रही हूं? कौन हूं? उस पर ही टिका दे।
जैसे-जैसे मैं अपना ध्यान स्वयं पर केंद्रित कर रही हूं। मैं अपने आप से इस शांत वातावरण और समय में एक प्रश्न पूछती हूं कि मैं कौन हूं? मेराअस्तित्व क्या है? क्या मैं यह नश्वर शरीर हूं? जो बाहर से और भीतर से बिल्कुल भिन्न-भिन्न दिखाई देता है। क्या मैं यह दृश्य हूं? या इस दृश्य को देखने वाली दृष्टा, क्या है मेरा अस्तित्व? जैसे यह सागर बेहद है, विशाल है, ना इसका कोई आदि दिखाई देता है और ना ही कोई अंत। ऐसे ही मैं भी इस आदि और अंत से परे हूं। इस शरीर का आदि भी है और अंत भी। तो मैं यह शरीर भला कैसे हो सकती हूं? इस शरीर को चलाने वाली,इसमें रहने वाली,मैं शरीर से भिन्न एक शक्ति हूं। अविनाशी और बेहद की शक्ति।
इस शरीर से भिन्न अपने सत्य स्वरूप को पहचाने। मैं मस्तक के बीचों-बीच दोनों नेत्रों के पीछे निवास करने वाली, इस शरीर को चलाने वाली इस शरीर की मालिक हूं ,एक दिव्य चैतन्य शक्ति आत्मा हूं। जैसे इस सागर के गुण हैं। बेहद और विशाल ऐसे ही मैं भी शांति में प्रेम में विशाल इस शांति का स्त्रोत प्रेम का स्त्रोत मेरे ही भीतर है। मैं एक चमकता हुआ सितारा ज्योतिर्बिंदु आत्मा हूं। यह शांति और प्रेम ही मेरा सत्य स्वरूप है। मैं ही इस शरीर कर्मेन्द्रिय मन की मालिक हूं। शरीर नश्वर है लेकिन मैं शक्ति अविनाशी सदा शाश्वत और सत्य हूं।
जैसे-जैसे मैं स्वयं को अनुभव करती हूं,मैं यह महसूस कर पा रही हूं कि इस विश्व पर मैं ही शांति और प्रेम का स्रोत हूं। मुझे शांति और प्रेम कोई व्यक्ति व वस्तु से नहीं परंतु भीतर से ही महसूस हो रहा है। मेरा अविनाशी संबंध उस परम पिता परम आत्मा शांति के सागर से है। प्रेम के सागर से है। वह एक परमात्मा ही इस विशाल समुद्र की तरह बेहद शांति और बेहद प्रेम मुझ पर बरसा रहे हैं। अनुभव करें कि उस निराकार ज्योति स्वरूप पर आत्मा से शांति और प्रेम की किरणें निकल कर मुझ आत्मा में समाती जा रही है। मुझे शांति और प्रेम से भरपूर कर रही है। इस शांति और प्रेम से भरपूर होकर मैं इस संसार में इस पृथ्वी पर शांति और प्यार बिखेरने वाली महान आत्मा हूं। परमात्मा से इस अनुभव को निरंतर प्राप्त करते हुए,स्वयं को भरते हुए, स्वयं के इस जन्म सिद्ध अधिकार का अनुभव इस संसार में सभी को कराते चले।

















